डा. लोहिया - तस्‍वीरों में
















डा. राममनोहर लोहिया - लेखक



1966, भारत बंद के दौरान आगरा में गिरफ्तार डा. लोहिया मजिस्‍ट्रेट के सामने बहस करते हुए



इलाहाबाद के समाजवादी नेताओं के साथ डा. लोहिया. चित्र में श्री शालिग्राम जायसवाल, छुन्‍नन गुरू, धर्मवीर गोस्‍वामी, रजनीकांत वर्मा और प्रो. वासुदेव सिंह



समाजवादी कार्यकर्त्ताओं के साथ डा. लोहिया. श्री कर्पूरीठाकुर एवं श्री प्रभुनारायण सिंह बगल में बैठे हुए.



लोहिया स्‍मृति के लिए इकट्ठा साहित्‍यकार. श्री सर्वेश्‍वरदयाल सक्‍सेना, श्री रघुवीर सहाय एवं श्री श्रीकांत वर्मा.



अभिन्‍न संगिनी डा. रमा मित्रा के साथ डा. लोहिया. गुरुद्वारा रकाबगंज रोड, दिल्‍ली स्थित सांसद आवास.



बर्मा के समाजवादी नेताओं के साथ डा. लोहिया



डा. लोहिया अखबार पढते हुए.



रंगभेद के विरोध में अमेरिका में सत्‍याग्रह के बाद गिरफ्तार डा. लोहिया (मिसीसिपी, अमेरिका), 27 मई 1964



राष्‍ट्रनिर्माण के लिए समर्पित डा. राममनोहर लोहिया. 25 जनवरी 1950



अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के विदेश सचिव युवा डा. लोहिया



राममनोहर लोहिया को श्रद्धांजलि देने आए खान अब्‍दुल गफ्फार खान. 1969, दिल्‍ली



डा. लोहिया कुछ अभिन्‍न समाजवादियों के साथ.



डा. लोहिया और किशन पटनायक



डा. लोहिया, प्रो. रमा मित्रा और शोभन एक अतिथि के साथ. दिल्‍ली, 1967



डा. राममनोहर लोहिया



प्रसन्‍न मुद्रा में डा. लोहिया.



असाधारण लेखक डा. लोहिया



दूरदृष्टि वाले समाजवादी चिंतक डा. राममनोहर लोहिया



महात्‍मा गांधी को कुछ कागजात दिखलाते हुए डा. लोहिया.



भारत और बर्मा के समाजवादियों के साथ.



स्‍वामी भगवान तथा अन्‍य किसान नेताओं के साथ डा. लोहिया, काशी विद्यापीठ, वाराणसी, 1950



म्‍यांमार की नेशनल डेमोक्रेसी लीग की सभा में बोलते हुए डा. लोहिया.



डा. राममनोहर लोहिया.



विचारमग्‍न डा. लोहिया (1967)



जेपी के साथ जनता मार्च की अगुवाई करते हुए.



जयप्रकाश और प्रभावती जी के साथ डा. लोहिया



जेपी और प्रभावती जी के साथ डा लोहिया हिन्‍द मजदूर सभा के सम्‍मेलन में.




गोवा मुक्ति के लिए गिरफ्तारी देते डा. लोहिया. 1946, गोवा



गोवा आंदोलन के बारे में साथियों से चर्चा के दौरान डा. लोहिया. गोवा, 1946



जर्मनी से पढाई पूरी कर स्‍वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय युवा लोहिया.




























































































































































1 टिप्पणियाँ:

PUKHRAJ JANGID पुखराज जाँगिड ने कहा…

'राम मनोहर लोहिया होने का मतलब''
इन्हें देखकर मुझे लोहिया का गँवई संस्कारों में रिलामिला रूप उनके नाम में मिला- राम मनोहर लोहिया, यानि 'रा', 'म', 'लो' (उनके नाम के पहले तीनो अक्षर) और तीनो मिलकर बने हमारे मिथकीय चरित्रों 'राम' और 'कृष्ण' (मनोहर) दोनों को एक साथ लोहे सी मजबूती के साथ साधने वाला (और 'जंग लगने' की संभावनाओं को भी लगातार टटोलने वाला) 'रामलो' या 'राम्लो' और गाँव के लोक मन में यह नाम खूब चलता है. चलता क्या है दौड़ता है. यह भी बहुत संभव है की उन्हें इस नाम से पुकारा भी जाता हो. संभावना यह भी हो सकती है की जर्मनी जैसे देशों में पढने-लिखने वाले आदमी का उज्जड गाँव वालों से भला क्या काम, और वो भी उन्हें इतने प्यार से क्युं पुकारे, अपमान भी तो समझ सकता है या फिर सिर पर चढ़ने की भी तो अधिक संभावनायें है, ऊपर से सब कुछ को बदल देने वाली नेतागिरी का भूत जो स्वर था उनके सिर पर. सबसे पहले उनकी फालतू नेतागिरी के कुछ फालतू मुद्दे (क्यूंकि अब उन पर सोचना लोग लगभग बंद ही कर चुके, और अपवादों से कुछ होना-जाना नहीं) जिनमें सबसे पहले आता हैं भाषा का मुद्दा. दरअसल अब वो कोई मुद्दा है भी नहीं, उसे हमारे देश के उद्धार करने वालो ने अपने उद्धार करने के महान कार्यों मे भुला ही दिया था. पता नहीं इनको क्या सूझ पड़ी थी जो यह भी गांधीजी की तरह ही पहली बेवकूफी यह कर बैठे की, यह भी उस अंतिम आदमी की भाषा के बारे में सोचने लगे. जो अपनी भाषा में ही समझता हैं, अपनी मातृभाषा में समझता है. तो यह 'मातृभाषा की वापसी' की बात समझाने को वो देशभर में सभी नेतागिरी की दुकान चलाने वालों के पास चल दिए, नतीजे का एक असर आप सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कहानी 'लड़ाई' कहानी में भी देख सकते है. महान विभूतियाँ की नजर से देखें तो उनकी (लोहिया की) भाषा-नीति की जरूरत शायद हमें अब नहीं रही है. भले ही हम मुफ्त शिक्षा के अधिकारों का ढिंढोरा पिटते फिरें. हकीकत क्या हैं यह आम आदमी थोडा ही जानता, जो जानता है, वो आम आदमी से कुछ ऊपर 'कुछ और होने' की अपनी मध्यवर्गीय कूपमंदुकता के चलते अपनी 'तीस मार खानी' क्षमताओं के सार्वजानिक प्रदर्शन के लोभ संवरण और 'मैं' से बाहर ही नहीं निकल सका और न ही किसी को निकल सका. अगर निकलता तो स्थिति यह कभी न होती की हर कोई अपने बच्चों को सर्वाधिक महँगी स्कूलों में पढ़ने की जिद्द सबसे पहले कभी न करता. और न ही देश के सबसे बड़े बुद्धिजीवी इसका सहयोग कभी नहीं करते. यशपाल हो या सेम पित्रोदा, सभी को अपनी भाषों में विहार की ज्ञान की दूर-दूर तक कोई संभावनायें नजर नहीं आती. क्युं अब हमारा देश जिसके बारे में कभी कहा जाता था कि यह गाँवों में रसता-बसता हैं, और कुछ समय पहले तक तो यह सभी मानते रहें है, भले ही वह मज़बूरी मे ऐसा करते रहें हो. लेकी अब स्थिति स्पस्ट हो चुकी है. अब आने वाले भारत में अपनी भाषा में बात करने वालों के लिए कोई जगह नहीं होगी. यह अलग बात है की लोहिया जवाहरलाल नेहरु की अंग्रेजी विस्तारक भाषा-नीति के मामले (अन्य कई मामलों के साथ-साथ, मुझे भाषा का मामला ज्यादा महत्त्वपूर्ण लगता है, किसी को न लगे) में तो बहुत पहले ही कह चुके थे कि आगे आने वाला इतिहास मुझे या नेहरु दोनों में से एक को ही सही मानेगा. (मन में इन फोटुओं को देखकर तत्काल जो कुछ आया, वह यही है, सही या गलत, में नहीं कह सकता...सो फ़िलहालइतना ही लोहिया के आम जन के, लोक के जीवन को बचाए रखने के जिलाए रखने के प्रयासों को सादर नमन के साथ...)